बाघ पकड़ने के इस मैराथन अभियान में लगे वन विभाग के लोग यों तो अपनी पीठ खुद थपथपाएंगे कि उन्होंने बाघ को बिना कोई क्षति पहुंचाए जीते-जी बेहोश करके पकड़ लिया, लेकिन सच पूछिए तो इस बीच बाघ की बेचारगी और हमारी लाचारगी, दोनों अच्छी तरह उजागर हुईं। यह बात थोड़ी मजाकिया हो सकती है कि वन विभाग के लोगों को 109 दिनों तक छकाने वाले बाघ ने लुकाछिपी का कोई कीर्तिमान बनाया या नहीं और इसे लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स अथवा रिकार्डो के गिनिज बुक में दर्ज किया जा सकता है क्या, मगर इस बाघ के बहाने कुछ सवालों पर जरूर गौर किया जा सकता है..
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के करीब रहमानखेड़ा के जंगल में भटकता बाघ 109 दिनों तक अखबारों के पन्ने पर दैनंदिन सचित्र जगह बनाए रखने के बाद आखिरकार 110 वें दिन पकड़ में आ गया। बाघ पकड़ने के इस मैराथन अभियान में लगे वन विभाग के लोग यों तो अपनी पीठ खुद थपथपाएंगे कि उन्होंने बाघ को बिना कोई क्षति पहुंचाए जीते-जी बेहोश करके पकड़ लिया, लेकिन सच पूछिए तो इस बीच बाघ की बेचारगी और हमारी लाचारगी, दोनों अच्छी तरह उजागर हुईं। यह बात थोड़ी मजाकिया हो सकती है कि वन विभाग के लोगों को 109 दिनों तक छकाने वाले बाघ ने लुकाछिपी का कोई कीर्तिमान बनाया या नहीं और इसे लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स अथवा रिकार्डो के गिनिज बुक में दर्ज किया जा सकता है क्या, मगर इस बाघ के बहाने कुछ सवालों पर जरूर गौर किया जा सकता है। पहली बात तो यही कि विकास की बलिवेदी पर वन्य पर्यावरण की हम जैसी दुर्गति करते आए हैं और यह प्रक्रिया अभी भी मुकम्मल तौर पर थमी नहीं है, उसका नतीजा यह है कि आसमान में मानसून के मेघ ही नहीं भटक जाते, बल्कि धरती के जीव-जंतु भी निराश्रित होकर और शायद घबराहट में बदहवास होकर रहमानखेड़ा के इस बाघ की तरह भटकने लगते हैं।
अगर याद करना चाहें तो मुंबई और दूसरे शहरों के विस्तार के तहत सीमांत के जंगलों को साफ करके बनाई गई कालोनियों में कभी चीता तो कभी तेंदुआ आदि के घुस आने और उन्हें पकड़ने के सनसनीखेज रोमांचक दृश्य हम टीवी के चैनलों पर पहले भी देखते आए हैं। हर साल कहीं न कहीं मानव बस्तियों में किसी जंगली जानवर के भटककर आ जाने की घटनाएं सामने आती रहती हैं।
असम से लेकर पूर्वी बंगाल और झारखंड के कुछ इलाकों में जंगली हाथियों के झुंड घुस आते हैं और खेती-बारी रौंदते हुए कच्चे मकानों और झोपड़ियों को तहस-नहस कर डालते हैं। पूर्वी भारत के देहातों में जंगली हाथियों का उत्पात एक तरह से तबाही का वार्षिक आयोजन बन गया है। रौद्र रूप हाथियों की चपेट में आकर कुछ लोग जान भी गंवाते रहते हैं। लखनऊ और वाराणसी जैसे शहर जो कभी अपने बाग-बगीचों और सघन हरियाली के कारण बंदरों और लंगूरों को बहुत रास आते थे, फलों के रूप में उन्हें पर्याप्त आहार मिल जाता था, अब हालत यह है कि इन शहरों में बड़े पैमाने पर वृक्षों को काट दिए जाने से कुछ मुहल्लों में मकानों की छतों पर बंदर धमाचौकड़ी मचाते हैं, मौका पाकर कमरों में घुस जाते हैं, खानेलायक चीजें जितना खाते नहीं, उससे ज्यादा इधर-उधर फेंककर बर्बाद करते हैं, कीमती चीजें पटक कर तोड़ देते हैं, कपड़े फाड़ देते हैं और कोई उन्हें भगाने जाए तो उसे काट खाने दौड़ते हैं।
लखनऊ में ही बंदरों के हमले में बीते बरसों में कई दर्दनाक हादसे हो चुके हैं। बहरहाल, साधारण जीव-जंतु और पशुओं के बारे में तो कोई सोचता ही नहीं कि वे क्या खाएंगे, कहां पानी पिएंगे, लेकिन चूंकि बाघ कोई मामूली जानवर नहीं है और जनमानस में खौफ का दूसरा नाम बना हुआ है, इसलिए रहमानखेड़ा के पकड़े गए बाघ के बहाने अगर हमारे भीतर वन्य प्राणियों और जीव-जंतुओं के संरक्षण के बारे में जरूरी चेतना और जागरूकता आ सके तो बहुत अच्छी बात होगी। दूसरे, कह सकते हैं कि बाघ ने खुद को पकड़वाकर वन विभाग के तीसमार खां टाइप उन लोगों की इज्जत बचा ली, जो उसको पकड़ने के अभियान में लगे थे और कई बार बाघ उनके सामने से निकल गया था। इस तरह हास्यास्पद होते जाने की धारावाहिकता पर विराम लग गया, वरना लालबुझक्कड़ की तरह एक से एक आइडिया पेश किए जा रहे थे।
मसलन, इधर कहा जा रहा था कि जब बाघ पकड़ में नहीं आ रहा है और रहमानखेड़ा के विकसित-संरक्षित जंगल यानी केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान की सघन हरियाली वाला माहौल उसे कुछ ज्यादा ही पसंद आ रहा है तो क्यों न इसे बाघ की सफारी बना दी जाए। जबकि पूर्व वन संरक्षक और टाइगर एंड टेरेन संस्था के अध्यक्ष ज्ञानचंद्र मिश्रा का कहना था कि रहमानखेड़ा में सफारी बनाना असंभव है क्योंकि केंद्र सरकार ने अरबों रुपए खर्च करके अनुसंधान केंद्र का निर्माण कराया है, जहां कई तरह के प्रयोग किए जाते हैं। सफारी बनाए जाने के विचार से नाइत्तेफाक रखने वाले विशेषज्ञों का कहना था कि भई, शेरों की सफारी यानी लायन सफारी तो बनती है, क्योंकि वे झुंड में रहते हैं और किए गए शिकार को मिलजुल कर खा लेते हैं, मगर बाघ तो अकेले रहना और शिकार करना पसंद करता है, सो टाइगर सफारी बना भी दी जाए तो मुश्किल से दर्शन देने वाले बाघ के लिए पर्यटक कबतक टकटकी लगाए रहेंगे?
बहरहाल, बाघ ने खुद को पकड़वाकर बहुत सारी बकरियों, पड़वों और भैंसों की जिंदगी बख्शने के साथ अभियान में लगे लोगों की इज्जत भी बख्श दी है, वरना वे कबतक और कहां-कहां से भैंसों-पड़वों का इंतजाम करते?
साभार : dailynewsactivist

No comments:
Post a Comment